CM कुर्सी पर बड़ा टकराव: शिवकुमार के संकेत, सिद्धारमैया की सख्त प्रतिक्रिया

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कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के भीतर नेतृत्व को लेकर खींचतान अब खुलकर सामने आ चुकी है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डी. के. शिवकुमार के बीच जारी सत्ता-साझाकरण विवाद ने पूरे राजनीतिक माहौल को अस्थिर बना दिया है। 2023 के चुनावों के बाद कथित रूप से तय पावर-शेयरिंग फॉर्मूले—जिसके अनुसार आधा कार्यकाल पूरा होने पर मुख्यमंत्री पद शिवकुमार को सौंपे जाने की चर्चा थी—एक बार फिर केंद्र में है। जैसे-जैसे सरकार अपने कार्यकाल के मध्य बिंदु के करीब पहुंच रही है, शिवकुमार की नाराज़गी और उनकी ओर से हाई-कमान पर बनाए जा रहे दबाव ने माहौल को और तनावपूर्ण बना दिया है।

शिवकुमार ने हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर कई संकेतपूर्ण पोस्ट साझा किए, जिनमें एक पोस्ट—“Word power is world power”—सत्ता हस्तांतरण के वादे की याद दिलाने जैसा माना गया। उन्होंने यह भी लिखा कि “वादा निभाना ही सच्ची राजनीतिक ताकत है”, जिससे यह साफ झलकता है कि वे अब नेतृत्व परिवर्तन के मुद्दे पर पीछे हटने के मूड में नहीं हैं। उनके समर्थक विधायकों का दिल्ली पहुंचना और हाई-कमान से मुलाकातें करना भी इस बात की ओर इशारा करता है कि शिवकुमार खेमे में उम्मीदें और सक्रियता दोनों बढ़ गई हैं।

इसके विपरीत, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपने रुख पर अडिग हैं। उन्होंने अपने जवाबी पोस्ट में कहा कि शब्दों की शक्ति तभी सार्थक है जब उनका उपयोग लोगों की भलाई के लिए हो। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जनता ने उन्हें पूरे पाँच साल के लिए जनादेश दिया है और वे अपना कार्यकाल पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सिद्धारमैया अपने पक्ष में सरकार की उपलब्धियों—विशेषकर सामाजिक कल्याण की योजनाओं—का उल्लेख करते हुए यह तर्क रखते हैं कि शासन स्थिर रहना चाहिए और इस समय किसी भी प्रकार का बदलाव जनता के हित में नहीं होगा।

कांग्रेस के भीतर बढ़ती यह कलह अब गुटबाज़ी में बदलती दिखाई दे रही है। कुछ विधायक जहाँ शिवकुमार के समर्थन में सक्रिय हैं, वहीं कई नेता सिद्धारमैया को स्थिर और अनुभवी प्रशासक मानते हुए उनके साथ खड़े हैं। इसी बीच, राज्य के गृहमंत्री और वरिष्ठ नेता जी. परमेश्वरा का नाम एक “वैकल्पिक विकल्प” के रूप में उभरने की चर्चाओं ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। पार्टी के भीतर यह आवाज़ भी उठ रही है कि अगर बदलाव होता है तो उसे व्यापक सहमति और हाई-कमान के निर्देशों के तहत ही लागू किया जाना चाहिए, अन्यथा स्थिति और बिगड़ सकती है।

पार्टी हाई-कमान इस पूरे विवाद को लेकर काफी सतर्क दिखाई दे रहा है। अब तक किसी भी स्पष्ट निर्णय या समय-सीमा की घोषणा न करना यह दर्शाता है कि कांग्रेस नेतृत्व स्थिति को और भड़कने से बचाने की कोशिश कर रहा है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि जल्दबाज़ी में लिया गया कोई निर्णय राज्य में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है, जो आगामी चुनावों से पहले कांग्रेस के लिए नुकसानदायक होगा। राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका यहाँ निर्णायक होगी, क्योंकि वही तय करेगा कि सत्ता-साझाकरण का वादा पूरा किया जाए या सिद्धारमैया को उनके पूरे कार्यकाल तक पद पर बने रहने दिया जाए।

इस राजनीतिक उथल-पुथल पर विपक्ष भी नजर बनाए हुए है। भाजपा ने इसे कांग्रेस की “आंतरिक अव्यवस्था” बताते हुए सरकार को घेरने की रणनीति तेज़ कर दी है। भाजपा का कहना है कि सरकार के भीतर की यह खींचतान विकास योजनाओं को प्रभावित कर रही है और जनता में असंतोष पैदा कर रही है। विपक्ष के लिए यह मौका है कि वह कांग्रेस की कमजोरी को चुनावी मुद्दा बनाते हुए अपनी स्थिति मजबूत करे।

समग्र रूप से देखा जाए तो कर्नाटक का यह नेतृत्व विवाद सिर्फ दो नेताओं का संघर्ष नहीं, बल्कि कांग्रेस संगठनात्मक ढांचे की परीक्षा बन गया है। आने वाले दिनों में हाई-कमान का फैसला न केवल राज्य की राजनीति बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की छवि और भविष्य की रणनीति को भी प्रभावित करेगा।

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