नेपाल में पिछले एक महीने से चल रहे GenZ आंदोलन ने देश की संवैधानिक संरचना को हिला कर रख दिया है। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इस आंदोलन के पीछे केवल असंतुष्ट युवा नहीं, बल्कि बाहरी ताक़तों की भी गहरी पैठ थी। सबसे बड़ा नाम सामने आ रहा है – क़तर और उसके सहयोगी इस्लामी नेटवर्क का, जिसने न सिर्फ़ नेपाल की राजनीति को प्रभावित किया बल्कि वहां की सामाजिक संरचना को भी बदलने की ओर अग्रसर है।
मुस्लिम एनजीओ और मस्जिद निर्माण में तेज़ी
रिपोर्ट्स के अनुसार, पिछले दो दशकों में नेपाल में मध्य-पूर्व, विशेषकर क़तर से भारी फंडिंग आई है। इसके ज़रिए बड़े पैमाने पर मस्जिदों का निर्माण, दूर-दराज़ गांवों में प्रचारक इमामों की नियुक्ति और हिंदू नेपाली प्रवासी मज़दूरों को इस्लाम अपनाने के लिए लालच देने जैसे कदम उठाए गए।
माना जा रहा है कि मुस्लिम धर्मांतरण के बदले प्रवासी मज़दूरों को वेतन वृद्धि और महज़ पांच साल की सेवा के बाद पेंशन की सुविधा जैसी प्रलोभन दिए जा रहे हैं। इसका असर इतना व्यापक रहा कि सदी की शुरुआत से अब तक नेपाल में मुस्लिम जनसंख्या का हिस्सा दोगुना से भी अधिक हो गया है।
GenZ आंदोलन में छिपे एजेंडे
नेपाल में हाल ही में हुआ GenZ आंदोलन, जिसमें लगभग 50,000 युवाओं की भागीदारी रही, शुरुआत में लोकतांत्रिक सुधारों की मांग करता दिखा। लेकिन आंदोलन की गहराई से पड़ताल करने पर सामने आया कि इसमें शामिल कार्यकर्ताओं में से लगभग 30 से 40 प्रतिशत मुस्लिम पृष्ठभूमि से थे।
दो गुप्त ताक़तों ने इस आंदोलन को हवा दी—
1. पूर्व राजशाही के समर्थक, जो सत्ता वापसी की तलाश में थे।
2. इस्लामी संगठन, जिनके पास पर्याप्त संसाधन और रणनीति थी।
जहां राजशाही समर्थक नेपाल और भारत के कुछ सहानुभूतिपूर्ण समूहों पर निर्भर थे, वहीं इस्लामी लॉबी ने क़तर की फंडिंग और भारतीय विदेश सेवा में अपने प्रभावशाली संपर्कों के दम पर बाज़ी पलट दी।
मोड़ पर फंसी राजशाही, इस्लामी लॉबी को मिला बढ़त
महत्वपूर्ण समय पर राजशाही समर्थक पीछे हट गए। बताया जा रहा है कि उन्हें यह सलाह भारतीय विदेश सेवा के कुछ क़तर समर्थक अधिकारियों के माध्यम से दी गई थी, जिसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक भी पहुंचाया गया। इस ग़लत सलाह से राजशाही खेमा हिचकिचा गया और मैदान इस्लामी ताक़तों के हाथ चला गया।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश बनीं चेहरा
आख़िरकार आंदोलन का नेतृत्व नेपाल की पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुषिला कार्की के हाथ में आ गया। उन्होंने सत्ता संभालते ही चुनी हुई संसद को निरस्त करने का फ़ैसला लिया—वह भी तब जबकि खुद को प्रधानमंत्री घोषित करने के लिए उन्हें संसद से ही अनुमोदन चाहिए था।
विश्लेषकों का मानना है कि यह फ़ैसला नेपाल के लोकतांत्रिक ढांचे को सीधे चुनौती देने वाला है।
हिंसा और दिखावटी सहानुभूति
GenZ आंदोलन के दौरान हुई लूटपाट, आगजनी और हिंसा को जनता के असंतोष का परिणाम बताने की कोशिश की गई। लेकिन प्रोफेसर खानाल को ज़िंदा जलाए जाने की घटना ने आंदोलन की असली सूरत सामने ला दी। इसके बाद इस्लामी गुट ने जनता को शांत करने के लिए एक दिखावटी सहानुभूति अभियान चलाया, जिसमें पाकिस्तानी एजेंट रहे एस. एस. भंडारी की पत्नी को अस्पताल ले जाकर मदद करने का नाटक किया गया।
नतीजा: संविधान पर संकट
अब संसद के कई सदस्य समझने लगे हैं कि यह पूरा आंदोलन एक क़तर-प्रायोजित साज़िश थी, जिसमें राजशाही और पुराने राजनीतिक दलों को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया।
कहा जा रहा है कि नेपाल ने अपने ही हाथों से संसदीय अधिकार एक ऐसी शख्सियत के हवाले कर दिए हैं, जिसने संविधान की शपथ लेने के बावजूद सत्ता की भूख में उसे ही दरकिनार कर दिया।
