प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की हालिया मुलाकात ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा संदेश दिया है। दोनों नेताओं के बीच दिखाई दी सहजता, परस्पर विश्वास और राजनीतिक केमिस्ट्री ने वैश्विक मंच पर यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी विदेश नीति में किसी प्रकार के दबाव को स्वीकार नहीं करता। राजनयिक हलकों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक ने यह स्वीकार किया कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेता है और वही उसकी विदेश नीति की नींव है। पश्चिमी मीडिया ने भी टिप्पणी की कि मोदी-पुतिन की निकटता इस बात का संकेत है कि भारत किसी भी शक्ति-गुट का अनुसरण नहीं करता, बल्कि संतुलित और स्वतंत्र कूटनीति को प्राथमिकता देता है।
इस दौरे में सबसे ज़्यादा चर्चा उस क्षण ने बटोरी जब पुतिन, प्रोटोकॉल को तोड़ते हुए, मोदी के साथ उनकी कार में प्रधानमंत्री आवास पहुंचे। इसे केवल औपचारिक कूटनीति नहीं, बल्कि व्यक्तिगत भरोसे का संकेत माना गया। रूस और भारत के संबंध दशकों से विभिन्न क्षेत्रों में गहरे रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में वैश्विक तनाव और नए शक्ति-संतुलन के दौर में यह मुलाकात दोनों देशों की साझेदारी की मजबूती का सार्वजनिक प्रदर्शन बनी। रूस ने अपने ऊर्जा, रक्षा और तकनीकी सहयोग को भारत के साथ दीर्घकालिक दिशा देने पर जोर दिया, वहीं भारत ने भी स्पष्ट किया कि भरोसे और पारदर्शिता पर आधारित संबंध उसकी कूटनीति का अहम हिस्सा हैं।
ऊर्जा क्षेत्र इस यात्रा का मुख्य केंद्र रहा। पश्चिमी देशों की ओर से रूस पर लगाई गई पाबंदियों और राजनीतिक दबावों के बीच भी भारत ने रूसी कच्चे तेल की खरीद का मुद्दा संतुलन के साथ आगे बढ़ाया है। विदेशी रिपोर्टों के अनुसार, भारत ने यह संकेत दिया कि ऊर्जा सुरक्षा उसके लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है और वह आपूर्ति के स्रोतों को अपने हितों के अनुरूप ही चुनेगा। रूस ने भी भारतीय बाज़ार को अपनी ऊर्जा रणनीति का एक स्थिर और भरोसेमंद स्तंभ बताया। व्यापार, विज्ञान, शिक्षा और सांस्कृतिक सहयोग से जुड़े कई प्रस्तावों और समझौतों पर भी बात हुई, जिनसे आने वाले वर्षों में द्विपक्षीय संबंध और व्यापक होने की उम्मीद है।
पश्चिमी विश्लेषकों ने इस यात्रा को भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के संदर्भ में समझा। अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ भारत के संबंध मज़बूत बने हुए हैं, लेकिन मोदी सरकार की यह नीति भी स्पष्ट है कि वह किसी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर दबाव में आकर निर्णय नहीं लेती। मोदी-पुतिन बैठक को वैश्विक मंच पर इसी सिद्धांत का पुन:प्रमाण माना गया। यह मुलाकात उन देशों के लिए भी एक संकेत बनकर उभरी, जो भारत की विदेश नीति को एक निश्चित दिशा में ढालने की उम्मीद रखते थे—नई दिल्ली अपने राष्ट्रीय हितों और दीर्घकालिक रणनीति के आधार पर ही कदम उठाएगी, चाहे वैश्विक वातावरण कितना भी बदल जाए।
समग्र रूप से यह यात्रा केवल औपचारिक कूटनीति भर नहीं थी बल्कि भारत की स्वतंत्र विदेश नीति, उसकी प्राथमिकताओं और विश्व राजनीति में उसकी बढ़ती भूमिका का प्रभावी संदेश बनकर सामने आई। मोदी और पुतिन की व्यक्तिगत समीपता, साझेदारी के आर्थिक-सामरिक आयाम और व्यापक वार्ता एजेंडा ने यह दिखाया कि भारत न तो किसी वैश्विक दबाव से प्रभावित होता है और न ही किसी एक धुरी की ओर झुकाव रखता है। यह प्रयास नई दिल्ली की उस नीति को मजबूत बनाता है जिसमें “हित पहले, दबाव बाद में” हमेशा शीर्ष पर रहता है।












