कांग्रेस की राष्ट्रीय पहचान पर संकट: कृष्णा अल्लावरु के प्रयासों के बावजूद पार्टी बनी आरजेडी की पिछलग्गू

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कांग्रेस पार्टी एक बार फिर यह साबित कर चुकी है कि उसने अपनी राष्ट्रीय पहचान को बनाए रखने में कठिनाइयों का सामना किया है। दक्षिण भारत से आए युवा नेता कृष्णा अल्लावरु ने महज़ कुछ महीनों में देसी हिंदी भाषी कार्यकर्ताओं के बीच विश्वास स्थापित किया। उन्होंने संगठन को सक्रिय करने के साथ-साथ महिला कांग्रेस और दलित वर्ग में पार्टी की पकड़ मजबूत करने की दिशा में भी कई प्रयास किए। इसके तहत कई कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिनमें स्वयं राहुल गांधी की उपस्थिति ने कार्यक्रम को और अहमियत दी।

कृष्णा अल्लावरु ने विशेष रूप से यह संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस को राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की छाया से बाहर निकलकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनानी होगी। उन्होंने लगभग 35 साल से आरजेडी की पिछलग्गू बनी कांग्रेस को ‘बैसाखी’ से मुक्त कराने का प्रयास किया। उनकी कोशिश थी कि पार्टी बिहार में अपनी शर्तों पर खड़ी हो और क्षेत्रीय दबाव के बिना निर्णय ले सके।

लेकिन, परिणामस्वरूप कांग्रेस को अंततः वही करना पड़ा, जो पिछले तीन दशक से होता आया है—क्षेत्रीय दलों की शर्तों के अधीन रहना। इससे न सिर्फ पार्टी की आत्मविश्वास की कमी स्पष्ट हुई, बल्कि इसके वैचारिक दिशा पर भी सवाल उठे। विशेषज्ञों का मानना है कि बीजेपी के डर से कांग्रेस लगातार एक क्षेत्रीय दल के रहम-ओ-करम पर निर्भर रही, लेकिन इससे उसे कोई विशेष लाभ नहीं मिला।

विश्लेषकों का यह भी कहना है कि लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मजबूत होना आवश्यक है। जब एक राष्ट्रीय दल लगातार क्षेत्रीय शक्तियों के प्रभाव में राजनीति करता है, तो यह न केवल उसके संगठनात्मक स्वास्थ्य, बल्कि लोकतांत्रिक संतुलन के लिए भी चिंता का विषय बन जाता है। कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष की क्षमता पर असर पड़ने की संभावना है।

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