राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल ही में दिए एक बयान में स्पष्ट किया है कि संघ में किसी भी धर्म या समुदाय के लोग शामिल हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि संघ में मुसलमान भी आ सकते हैं, बशर्ते वे खुद को भारत माता का पुत्र और व्यापक ‘हिंदू समाज’ का हिस्सा मानें। भागवत ने यह बात एक व्याख्यान-माला के दौरान कही, जहां उन्होंने संघ की 100 वर्ष की यात्रा और उसके सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा की। उनके अनुसार, आरएसएस किसी व्यक्ति की पहचान धर्म या जाति से नहीं करता, बल्कि उसे एक ऐसे स्वयंसेवक के रूप में देखता है जो राष्ट्र की सेवा करना चाहता है।
भागवत ने कहा कि संघ में आने के लिए किसी की धार्मिक या जातीय पहचान मायने नहीं रखती, बल्कि व्यक्ति की देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति समर्पण ही असली कसौटी है। उन्होंने बताया कि शाखाओं में आने वाले लोगों से कोई यह नहीं पूछा जाता कि वे किस धर्म या पंथ से हैं। शाखा में सभी स्वयंसेवक एक समान होते हैं और उन्हें ‘भारत माता के पुत्र’ के रूप में देखा जाता है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि संघ का उद्देश्य समाज को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।
संघ प्रमुख ने इस मौके पर यह भी कहा कि भारत का इतिहास समावेश और एकता का रहा है। यहां हर धर्म और समुदाय का स्वागत किया गया है। उन्होंने कहा कि धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर एक साझा राष्ट्रीय-सांस्कृतिक पहचान अपनाना ही संघ की मूल भावना है। इस संदर्भ में उन्होंने समझाया कि यदि कोई व्यक्ति इस साझा भारतीय संस्कृति को स्वीकार करता है, तो वह संघ का हिस्सा बन सकता है — चाहे उसका धर्म कुछ भी हो।
भागवत के इस बयान के बाद राजनीतिक और सामाजिक हलकों में नई बहस छिड़ गई है। कुछ लोगों ने इसे सकारात्मक कदम बताया और कहा कि यह संवाद और एकता की दिशा में संघ का नया प्रयास है। वहीं, कुछ आलोचकों ने इस बयान को ‘शर्तों के साथ समावेशन’ बताया और कहा कि “हिंदू समाज” की परिभाषा में दूसरों को समाहित करने की बात अपने आप में जटिल है। कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भागवत के संवाद प्रस्ताव का स्वागत किया है और कहा है कि ऐसे वक्तव्य से समुदायों के बीच बातचीत के नए रास्ते खुल सकते हैं।
संघ की शाखा-व्यवस्था की बात करें तो ये शाखाएं आरएसएस का सबसे बुनियादी ढांचा हैं, जहां स्वयंसेवक नियमित रूप से मिलते हैं, व्यायाम, खेल और राष्ट्रभक्ति के गीतों के माध्यम से संगठनात्मक भावना विकसित करते हैं। इन शाखाओं में किसी की जाति या धर्म की गिनती नहीं की जाती, बल्कि सबको एक भारतीय नागरिक के रूप में देखा जाता है। भागवत ने कहा कि यही संघ की वास्तविक पहचान है — “सांस्कृतिक एकता और राष्ट्र सेवा।”
भागवत के बयान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संघ का दरवाजा सभी के लिए खुला है, लेकिन उसके मूल विचारों और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। उनका यह संदेश एक ओर संवाद और समावेशन की भावना को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह भी इंगित करता है कि संघ की विचारधारा के भीतर विविधता को स्वीकारने की परिभाषा अभी भी एक साझा सांस्कृतिक ढांचे में ही सीमित है।













