नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय के लिए समय सीमा निर्धारित करने के आदेश पर कड़ी आपत्ति जताई है। सरकार का कहना है कि यह कदम संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ करने जैसा होगा और इससे शासन व्यवस्था में अराजकता पैदा हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या था?
सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने इस साल अप्रैल में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि—
राष्ट्रपति किसी भी विधेयक पर अधिकतम 3 महीने के भीतर निर्णय लें,
जबकि राज्यपालों को 1 महीने की समय सीमा में फैसला करना होगा।
इस निर्णय का उद्देश्य राज्यों और केंद्र के बीच लंबित बिलों पर अनिश्चितता दूर करना था।
केंद्र सरकार का पक्ष
केंद्र ने दलील दी कि संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपालों को लेकर ऐसी कोई बाध्यकारी समय सीमा तय नहीं की गई है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि न्यायपालिका इस तरह की समयसीमा थोपकर संविधान निर्माताओं की मंशा से आगे नहीं जा सकती। उनके अनुसार, अनुच्छेद 142 जैसी विशेष शक्तियों का प्रयोग भी संविधान के मौलिक ढांचे को बदलने के लिए नहीं किया जा सकता।
सरकार ने चेतावनी दी कि अगर न्यायालय इस तरह का निर्देश लागू करता है तो यह संवैधानिक अराजकता का कारण बनेगा और राष्ट्रपति व राज्यपालों जैसे संवैधानिक पदों की गरिमा पर भी प्रश्न उठेंगे।
राष्ट्रपति की आपत्ति और सवाल
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आपत्ति जताई है। उन्होंने अनुच्छेद 143(1) के तहत मामला सुप्रीम कोर्ट को संदर्भित करते हुए 14 संवैधानिक सवाल उठाए हैं। इनमें प्रमुख सवाल यह है कि क्या अदालत राष्ट्रपति और राज्यपालों जैसे पदों पर समय सीमा निर्धारित कर सकती है, जबकि संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
संविधान पीठ में सुनवाई
राष्ट्रपति के संदर्भ के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक संविधान पीठ का गठन किया है। इसने केंद्र और राज्यों दोनों से जवाब मांगा है। फिलहाल, इस संवैधानिक बहस पर विस्तृत सुनवाई जारी है।
राजनीतिक प्रतिक्रिया
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इस मुद्दे पर केंद्र की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाना लोकतांत्रिक परंपराओं के विपरीत है और यह गैर-बीजेपी राज्यों के अधिकारों को सीमित करने का प्रयास प्रतीत होता है। स्टालिन ने अन्य विपक्षी दलों से इस मामले में संयुक्त मोर्चा बनाने की अपील की।
निष्कर्ष
यह मामला केवल राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन पर गहरी बहस को जन्म दे चुका है। अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ पर टिकी हैं, जिसका निर्णय भविष्य की राजनीति और संवैधानिक प्रक्रिया की दिशा तय करेगा।
