नई दिल्ली: देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव आयोग (ECI) को हमेशा से निष्पक्ष और स्वतंत्र संस्था माना जाता रहा है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के बीच एक अहम मुद्दे पर टकराव की स्थिति बन गई है। मामला है — Systematic Investigation of Rolls (SIR) यानी मतदाता सूचियों की व्यवस्थित जांच और सत्यापन। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में संकेत दिया था कि देशभर में मतदाता सूचियों की नियत अंतराल पर जांच की जानी चाहिए। लेकिन चुनाव आयोग ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि यह उसके संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप है।
चुनाव आयोग का हलफनामा: ‘स्वायत्तता पर सवाल’…
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में चुनाव आयोग ने साफ कहा कि मतदाता सूची का प्रबंधन उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी है। इसलिए अदालत या किसी अन्य संस्था द्वारा इस प्रक्रिया में दखल देना आयोग की स्वतंत्रता और अधिकारों पर असर डाल सकता है।
आयोग का कहना है कि हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में अलग-अलग हालात होते हैं। कई जगह चुनावी कार्यक्रम पहले से तय रहते हैं। ऐसे में सभी राज्यों में एक समान अंतराल पर SIR कराना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है।
आयोग के अनुसार—
“मतदाता सूची की शुद्धता और पारदर्शिता बनाए रखना चुनाव आयोग का काम है। यह कार्य पूरी तरह संवैधानिक रूप से आयोग को सौंपा गया है। बाहरी हस्तक्षेप न केवल इस प्रक्रिया को प्रभावित करेगा बल्कि आयोग की स्वायत्तता पर भी प्रश्नचिह्न लगाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट में याचिका का आधार…
यह पूरा मामला उस समय उठा जब बिहार में हाल ही में कराई गई SIR प्रक्रिया पर सवाल उठे। राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों ने आरोप लगाया कि मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां हैं। कई जगह एक ही मतदाता का नाम अलग-अलग बूथों पर दर्ज पाया गया तो कहीं मृतक व्यक्तियों के नाम भी सूची में मौजूद थे।
इन शिकायतों के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिसमें मांग की गई कि देशभर में एक निश्चित समयावधि पर मतदाता सूची की व्यवस्थित जांच अनिवार्य की जाए। अदालत ने इस पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग से स्पष्टीकरण मांगा।
मतदाता सूची क्यों है इतनी अहम?
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में मतदाता सूची को चुनाव की रीढ़ माना जाता है। यदि सूची में त्रुटियां हों, तो न केवल चुनाव परिणाम प्रभावित हो सकते हैं बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख पर भी सवाल उठ सकते हैं।
सटीकता की कमी: डुप्लीकेट, मृतक या काल्पनिक मतदाता नाम से गड़बड़ी।
नए मतदाताओं का छूटना: 18 साल पूरे कर चुके युवा समय पर सूची में नहीं जुड़ पाते।
माइग्रेशन की समस्या: शहरों में पलायन करने वाले मजदूर और छात्र कई बार अपने वोटिंग अधिकार से वंचित रह जाते हैं।
राजनीतिक दलों की राय…
इस विवाद पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है। विपक्षी दलों का कहना है कि नियमित अंतराल पर SIR अनिवार्य होना चाहिए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे।
वहीं सत्तारूढ़ दल का रुख अपेक्षाकृत संतुलित है। उनका कहना है कि प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए, लेकिन चुनाव आयोग की स्वायत्तता पर भी आंच नहीं आनी चाहिए।
विशेषज्ञों की नजर में मामला…
चुनाव सुधारों पर काम करने वाले विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मुद्दा केवल तकनीकी नहीं, बल्कि संवैधानिक महत्व का है।
यदि सुप्रीम कोर्ट आयोग पर SIR को अनिवार्य करने का दबाव डालता है तो यह आयोग की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है। वहीं यदि आयोग को पूरी तरह छूट दी जाती है, तो मतदाता सूचियों की गड़बड़ियां जारी रहने का खतरा भी है।
अब इस मामले की अगली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि क्या SIR की प्रक्रिया को कानूनी रूप से अनिवार्य किया जाए या इसे चुनाव आयोग के विवेक पर ही छोड़ दिया जाए।
अगर अदालत आयोग की दलीलों को खारिज कर देती है, तो भविष्य में देशभर में मतदाता सूची की नियमित और व्यवस्थित जांच एक अनिवार्य प्रक्रिया बन सकती है। वहीं अगर अदालत आयोग के पक्ष में जाती है, तो यह उसके संवैधानिक अधिकारों और स्वतंत्रता की एक और पुष्टि होगी।
