विधानसभा बनाम राज्यपाल: विधेयकों पर दखल का अधिकार नहीं, बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रखी बात

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सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में चल रही राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) की सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार ने स्पष्ट कहा कि राज्यपाल को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों की विधायी क्षमता (legislative competence) की जाँच का अधिकार नहीं है। राज्यपाल का दायित्व केवल यह देखना है कि विधेयक संवैधानिक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़े, लेकिन उसके वैधानिक या संवैधानिक पहलुओं पर फैसला करना केवल न्यायालय का काम है।

बंगाल सरकार का पक्ष

पश्चिम बंगाल की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि किसी भी विधेयक की संवैधानिकता या केन्द्र-राज्य कानूनों के बीच टकराव (repugnancy) जैसे मुद्दे न्यायपालिका के क्षेत्र में आते हैं। यदि राज्यपाल को यह अधिकार दिया जाए कि वे किसी बिल को रोककर उसकी वैधता पर निर्णय लें, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित होगी और चुनी हुई विधानसभाओं की भूमिका कमजोर हो जाएगी।

सिब्बल ने यह भी कहा कि संविधान राज्यपाल को ‘सुपर लेजिस्लेटर’ (अतिरिक्त विधायिका) बनने की अनुमति नहीं देता। यदि उन्हें यह छूट दी जाए तो वे किसी भी राजनीतिक कारण से विधेयकों को लंबित कर सकते हैं और इससे शासन प्रणाली पर विपरीत असर पड़ेगा।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ

सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने भी कई अहम सवाल उठाए। मुख्य न्यायाधीश ने यह पूछा कि अगर न्यायालय यह मान ले कि विलंबित विधेयकों पर ‘डेएम्ड असेण्ट’ (deemed assent) दिया जा सकता है, तो क्या यह तर्क अन्य कार्यकारी शक्तियों पर भी लागू होगा? अदालत ने यह भी संकेत दिया कि कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल के पास विवेकाधिकार होता है, खासकर तब जब कोई विधेयक केंद्र के कानून से टकराता हो और उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना आवश्यक हो।

संवैधानिक निहितार्थ

यह मामला केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी राज्यों पर असर डालेगा जहाँ राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है। कई बार राज्यपालों द्वारा विधेयकों को मंजूरी न देने या लंबे समय तक रोकने के कारण राज्यों की विधायी प्रक्रिया प्रभावित होती रही है। सुप्रीम कोर्ट के आगामी फैसले से यह स्पष्ट हो सकता है कि राज्यपाल की भूमिका कितनी सीमित है और क्या वे विधायी क्षमता जैसे संवैधानिक प्रश्नों पर हस्तक्षेप कर सकते हैं या नहीं।

आगे क्या?

अदालत अभी इस राष्ट्रपति संदर्भ पर विचार कर रही है और अगली सुनवाई में और तर्क सुने जाएंगे। अंतिम फैसला राज्यों की विधायी स्वतंत्रता और संघ-राज्य संबंधों पर गहरा असर डालेगा। यदि अदालत यह मान लेती है कि राज्यपाल केवल औपचारिक स्वीकृति तक सीमित हैं, तो यह राज्यों की विधायी प्रक्रिया को मजबूत करेगा। वहीं, यदि विवेकाधिकार को मान्यता दी जाती है, तो यह राज्यपाल की भूमिका को और अधिक प्रभावशाली बना सकता है।

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